विदिषा तुम्हें ??????


author : kamal bhatt
column : kamal ki kalam se...
कभी पहाड़ो पे १ सर्द सी सुबह लेकर घुली हुई मिठास मे जिन्दगी पी है?
मै तारो की फ़ुस्फ़ुसाहट चुपके से सुनता हू...........
कल रात सुना था उस पार इक कोई रहता है जिसका के नाम भी है....
अचरज ! कि किस प्रकार कोई पुकारता भी है.........
के मेरा हर गीत जिस नाम के आते  ही गजल बन जाता है...
यकीन कर भी लू तो कैसे...
कुछ कौतूहल से देखता भी तो पर....
केले के झुर्मुट से उस पार कोई दिखाई नही देता...........
और मै १ पत्ते से हारा हूं जिसने की तुम्हे छुपा रखा था........
सुना था चांदनी से मेरा अक्स नहीं बनेगा.............
आंखे खोली भी नही है के मै बुत हो गया हूं..........
इबादत का चेहरा किसने देखा है.................??
किसने सुनी है बुलबुल की दुआ......?
कौन पारस को महसूस कर फिर वैसा ही रहा.......
कि जिसने देखा है वो आंख से जबान का रिश्ता तोड़ देता है.......
कि जो सुनकर आया है हर बात पर नदी का सिरा मोड़ देता है....
चन्दन और चांदनी की सुलह भी हुई है.........
दोस्ती १ तुम्हारी दुश्मनी से हुई है.....
कल्पना की कोसिस मे मैने.....हर साज छेड़ा........
कितने ही बादल लिये....कितनी नदी..कितने ही जंगल......कितने रंग..........
और हर रंग  बिखर कर मुझसे कहता है............
कोरा ही रहनो दो कागज........
अतुलनीय की तुलना नही....
आदर्श का दर्शन नही.........
आलेख का लेखन नही....
तस्वीर का दर्पण नहीं....
ये सब संभव  कर भी दूं तो............
.क्या मेरी विवेचना..और क्या मेरा कथन.......
शब्दो को चुप कर ............कलम को रोक कर...........क्यू ना इक टक निहारता रहू......
विदिषा तुम्हें  ???????
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